दहेज प्रथा के खिलाफ एक शानदार फिल्म है| किस प्रकार युवतियां कानून का दुरुपयोग करती हैं और एक आम आदमी का जीवन नर्क बना देती हैं । कहानी को अनुराग शर्मा ने बखूबी पर्दे पर उतारा है। इसके अतिरिक्त भगवान और इंसान के बीच भक्ति और शक्ति को लेकर जो द्वंद चलता है उसमें किस तरह से भगवान अपने होने का एहसास कराते हैं। यह सब देखने के लिए एक बार दर्शकों को थिएटर तक जरूर आना चाहिए ।क्योंकि इस तरह की फिल्में बेहद कम निर्देशक और निर्माता बनाते हैं। ऐसी फिल्में बनाने के लिए जहां इच्छाशक्ति की जरूरत है वही ऐसी फिल्मों को दर्शकों के सामने इंटरटेनमेंट के रूप में रख पाना भी एक चुनौती होता है। इस तरह की फिल्मों से समाज का एक वह रूप सामने आता है जिसमें लोगों की सहानुभूति आमतौर पर आरोपी पक्ष के साथ बेहद कम होती है।जबकि सच्चाई तो यह है की इस प्रकार के मामलों में अक्सर समाज महिला पक्ष के साथ जाकर खड़ा हो जाता है। क्योंकि आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि नारी अबला है और वह हमेशा सही होती है। इस अबला को न्याय दिलाने के लिए समाज वर्षों संघर्ष करता है जब वर्षों बाद यह पता चलता है कि अबला नारी ही पूरे षड्यंत्र में अत्याचारी थी तब महज अदालत से केस खारिज कर दिए जाते हैं। परंतु आरोपी यानी कि पीड़ित पक्ष की इस जद्दोजहद में जो दुर्दशा हो चुकी होती है उसका कोई हर्जाना नहीं भरा जाता । तो दशक इस फिल्म को देखने के लिए सिनेमाघरों तक जरूर पहुंचे और समाज में होने वाले दहेज के खिलाफ कानून के दुरप्रयोग को अपने तराजू में जरूर तोले।