कहानी की पृष्ठभूमि की जांच किए बिना मनोज बाजपेयी के फिल्म में काम करने की कभी उम्मीद नहीं की गई थी, हालांकि फिल्म का दावा है कि यह सच्ची घटना पर आधारित है लेकिन वास्तव में यह पूरी तरह से मीडिया ट्रायल कहानियों पर आधारित है। रचनात्मकता में सूक्ष्मता की कमी है और फिल्म के दृश्य ऐसे लगते हैं जैसे बेतरतीब ढंग से एक साथ रखे गए हैं जिससे देखने का समग्र अनुभव अप्रभावी हो जाता है
तथ्यों के नजरिए से फिल्म हिंदू संतों और हिंदू धर्म को निशाना बनाने का सटीक उदाहरण लगती है
मनोरंजन के नाम पर यह फिल्म मानसिक आघात देती है