कल देखी। जातिवाद पर गहरे तक चोट करती इस फिल्म ने मुझे अंदर से हिलाकर रख दिया। पर फिल्म से भी ज्यादा मुझे इस बात ने अभी तक बेचैन कर रखा है कि जैसे एक जगह नायक कहता है कि यहां किसी को भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, बिल्कुल वैसी ही हालत आज असल में है क्योंकि इतनी अच्छी रचना को मेरे साथ मात्र पांच-सात लोग और देख रहे थे। पूरा हाल खाली पड़ा था।
क्या सच में ही किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ रहा है?
क्या हम वास्तव में ही इतने ज्यादा संवेदनहीन हो चुके हैं?
हां, जहाँ तक फिल्म का सवाल है, वह अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब रही है। स्टार्टिंग वाला गाना तो शुरू में ही झिंझोड़ कर रख देता है। गौरा के रोल वाली कलाकार तथा आयुष्मान का अभिनय एक क्षण के लिए भी अभिनय लगा ही नहीं। लग रहा था जैसे कि वो अपनी असली जिंदगी की कहानी हमारे सामने रख रहे हैं।
हां वो निहाल को आरोपी दिखाना कुछ नकली सा लगा। ये ठीक है कि नायक कहता है कि अपराधी हमसे डेढ़ फुट पर बैठा था, यह बात चिंताजनक होने के साथ साथ निराशाजनक भी है। इसका मतलब फिर हम किसी पर भी विश्वास नहीं कर सकते। फिर लोग कैसे जुडेंगे? बदलाव के लिए आन्दोलन कैसे खड़े होंगे?
खैर, इस बाजारवाद के दौर में, एक हिलाकर रख देने वाली; सोचने को ही नहीं, बल्कि कुछ करने को मजबूर कर देने वाली फिल्म पेश करने वाले अनुभव एक क्रांतिकारी सेल्यूट के हकदार तो हैं ही!