कहा जाता है, फिल्में समाज का आईना होती हैं। #कबीर_सिंह भी समाज का प्रतिबिंब ही है। प्रेम पर गुस्सैल व्यक्ति का हक नहीं है क्या? क्या जरूरी है कि प्रेम में व्यक्ति केवल देवदास ही हो? कबीर सिंह भी हो सकता है।
ऐसे में, इस फ़िल्म को लेकर तथाकथित स्त्रीवादियों की आलोचना समझ से परे है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का राग अलापने वाले या वाली भी इसकी आलोचना में पीछे नहीं।
कोई #Misogyny (स्त्री द्वेष) से जोड़ रहा है तो कोई जहरीला पुरुषवाद और पितृसत्तावादी कह रहा है।
क्यूँ भाई क्यूँ? इस बार ऐसा क्या पहाड़ टूट गया।
खैर, फ़िल्म मेकिंग के लिहाज़ से फ़िल्म उम्दा है। कहानी, पटकथा, पार्श्व संगीत अच्छे हैं। अभिनय की बात करें तो शाहिद कपूर ने पूरा न्याय किया है। कामिनी कौशल जी छाप छोड़ने में कामयाब रही हैं। सोहम मजूमदार पर निर्देशक संदीप की खास मेहरबानी रही और वह अकेले ऐसे कलाकार रहे जो ओवर शैडो नहीं होते। कियारा आडवाणी के लिए फ़िल्म में कुछ था ही नहीं पर बला की खूबसूरत लगी है।
शाहिद कपूर को इतनी अच्छी ओपनिंग आज तक नहीं मिली और फ़िल्म यकीनन शाहिद के पुराने रिकॉर्ड ध्वस्त करेगी।
इसे देखने के बाद #अर्जुन_रेड्डी देखने की भी जिज्ञासा बढ़ गई है जिसकी ये फ़िल्म रीमेक है।