ईमानदार होना अच्छा है ,पर ईमानदारी का घमंड ठीक नही , अपने हिस्से का काम ईमानदारी पर घमंड किये बगैर करते जाओ ,देश सुधर जायेगा
न्यूटन ने बता दिया कि राजा ,जनता ,शासक सब बराबर है , प्रकृति के सामने , अंबानी और चायवाले को पहाड से फेंको ,दोनो समान समय पर नीचे आयेंगे ,ग्रेविटी के कारण
राजकुमार राव तो सहज ,स्वाभाविक अभिनय के धनी है ही , बूथ लेवल अधिकारी बनी मलको भी छाप छोडती है , नक्सलवादी हिंसा दिखाये बगैर नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्र में एक दिनी चुनावी प्रक्रिया पर दो घंटे की फिल्म में नक्सलवाद , आदिवासी ,पुलिस ,मीडिया ,प्रशासन , शासकीय कर्मचारी , एन जी ओ , राजनीतिक ,सेना सबकी अपनी अपनी भूमिका ,मजबूरी ,माहौल में ढलकर माहौल का आदी होना और शासकीय तंत्र की परंपराओ को सिर्फ संवादो के जरिये बयां करना एक निर्देशकीय प्रतिभा की परकाष्टा है ,
कैमरे का कमाल कहो या निर्देशन का कमाल या पटकथा लेखक की सोच कि एक जली झोपडी और खंडहर सा एक कमरे का बगैर दरवाजे ,खिडकी का बियाबान जंगल के बीच स्कूल जो पोलिंग बूथ के रूप में दिखाया है को देखते ही रूह कांप जाती है , नक्सलवाद के आतंक और मौतो का आतंक इस खंडहर नुमा स्कूल को देखकर ही महसूस होता है
कडवा यथार्थ देख एक मजबूरी का अहसास लिये निकलता है दर्शक कि आखिर ऐसा क्यो और कब तक और क्यो नही हो सकता सब ठीक बस्तर में ?
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