मैले को स्वच्छ करता हुआ आंचल, मैला आंचल।
पूर्णिया जिले के इस छोर से उस छोर तक का सजीव चित्रण। फूल, पत्ती,बाग शायद ही कुछ बचा रह गया हो।
टोली तो इतनी कि नाम याद ही नहीं रह जाता, राजपूत टोली,यादव टोली...फिर इन सब के भीतर टोली..।
आजादी के पूर्व व उसके पश्चात का बहुत ही स्पष्ट चित्रण किया है रेणु जी ने।
डॉक्टर प्रशांत और कमली , लक्ष्मी और बालदेव ये दोनों ही प्राण फूंकते रहते हैं उपन्यास में। कालीचरन, वासुदेव, तहसीलदार साहब, बावनदास, ज्योतिष काका सब अपने आप में ही अद्भुत हैं।
डॉक्टर साहब उपन्यास के आधरस्वरूप कहें जाएं तो कोई गलत नहीं। जो डॉक्टर साहब हार्ट और लंग्स से प्रेम का कोई संबंध नहीं मानते, कमली को देखने के बाद वो भी महसूस करते हैं कि इस मानव शरीर में कोई दिल की आकृति जरूर है। कमली को अपने प्रशांत महासागर पर पूरा विश्वाश है,उसका प्रेम उसके यकीन पर ही खड़ा है, जो अंत तक बना रहता है। ममता को देख डॉक्डर का चित्त एक बार चंचल शायद हुआ भी हो लेकिन कमली का विश्वाश उससे कहीं ज्यादा है। प्रशांत गांव में प्यार की खेती करना चाहता है,वह आंसू से भीगी धरती पर प्यार के पौधे लहलाहेगा।
लक्ष्मी दासी के रूप में ही अपना जीवन बिताती है। पुरूष का चित्त कब चंचल हो जाए क्या कहा जा सकता है,लेकिन लक्ष्मी बड़ी ही साहसी स्त्री है। जब तक वह मठ में थी वह मठ था उसके बाद तो वह मीनाबाजार से ज्यादा कुछ नहीं।
उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि उसी गांव के हम भी हैं। भाषा का जादू शुरु से अंत तक छाया है। ढोल नगाड़े, बादल,बिजली..जिस भी चीज की आवाज नहीं सुनी है,आप उपन्यास में सुन लीजिएगा।।
- तुलसी गर्ग