हमारी खुशकिस्मती है कि आज हम इस खुले आसमान के नीचे आजादी का ये हसीन जश्न मनाने इकट्ठा हुए हैं। ये आजादी हमें यूं ही नहीं मिली... न जाने इसके लिए कितनों ने अपने सर कटाएं... न जाने कितनी माओं ने अपनी संताने कुर्बान कर दीं.... न जाने कितनी औरतों के सुहाग उजड़ गए... न जाने कितनी बहनों ने हमेशा के लिए अपने भाइयों को खो दिया...
हिंदू-मुस्लिम, सिख-इसाई, जैन-पारसी... हर धर्म के लाखों नाम-गुमनाम नायकों ने खुद की जिंदगियां तबाह की तब जाकर हमें आज का ये दिन देखने को नसीब हुआ... मगर अफ्सोस कि हमें उनके त्याग-तपस्या और बलिदान का जरा भी एहसास नहीं... हम सिर्फ 15 अगस्त या 26 जनवरी के दिन ही उन्हें और उनके जरिये मिली इस स्वतंत्रता को याद करते हैं... बाकि समय हम मत-मजहब, जाति-सम्प्रदायों में बंटकर आपस में लड़ते रहते हैं... और हमें अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने वाले नायकों के एक रहने के सपनों को चकनाचूर करते रहते हैं... एक शेर याद आता है। (कविता या शायरी का इस्तेमाल करें)
"दिलों में हुब्ब-ए-वतन है अगर तो एक रहो
निखारना ये चमन है अगर तो एक रहो"