स्वतंत्रताकि संबंधमे मेरा अपना मत है कि,प्रकृतिके विेभिन्न असंवेधनशील घटकौंके साथ समतुल्य रुपमे देखकर समाजिक असमानतावौंको कायम रखते हुय स्वतंत्राका परिभाषा पायाजाता है उचित नहि है।
संसारभरमे जितने भि जन्मलेकर आते है उनसभिका खुद अपना-अपना बिचार होतेहुयभि उन सभिकि जीवनकि जरुरतें एक जैसाहि होतें है।
प्रथमत: जीवनके भौतिक आधारौको समानरुपसे उपभोग करपानेका अवशर मानवमात्रसभिका अति आवश्यक स्वतंत्रकि कडि है।
दुसरि संसारमे जितने लोगजन्म लिएहुयहै उन सभिका अपना-अपना स्वतंत्र बिचार होता है।उनसबअरबौं बिचार समुचा मानवके कल्याणकार्यमे लगा पाना हि स्वतंत्राका सहि अर्थलगता है।