चित्रा मुद्गल द्वारा लिखित 'एक ज़मीन अपनी' उपन्यास पढ़ी। जिसमें अंकिता और नीता स्त्रियाँ एक ही सिक्के दो पहलू के समान लगी। जो यथार्थ इस उपन्यास में हमने पढ़ा वह सब हम देख भी चुके हैं और आज भी देख व सुन रहे है!
स्त्री मानो संघर्ष का पर्याय बन गयी है। आधुनिकता के नाम पर नीता का अति आधुनिक हो जाना हृदय को आहत करता है! दूसरी ओर अंकिता की जागृत चेतना मन को सहलाती है! आज प्रत्येक स्त्री अपने अस्तित्व की तलाश में है अर्थात् अपने लिए एक ऐसी ज़मीन चाहती है जो नितांत उसकी अपनी हो।
नीता का अंत सच में पाठक को रुला देता है, मित्र का ऐसा अंत अंकिता को अधिक दुःखी करता है और दुःख, पीड़ा, गुस्सा सब मिलकर नीता को कायर घोषित कर देते है! मानसी को यूँ छोड़ जाना...उफ्फ
माँ तो बन जाती नीता तुम...
मैंने इस उपन्यास को केवल पढ़ा ही नहीं है बल्कि ऐसा लगा जैसे इसे जी लिया हो!