इस सीरीज की एक डायलॉग हमारे सिस्टम और सिरीज के सार को कह देती है- 'ये सिस्टम जो है ना चौधरी… दूर से देखने में सड़ा गला कचरे का ढ़ेर लगता है। लेकिन अन्दर घुस के समझोगे न… वेल ओइल्ड मशीनरी है। हर पुर्जे को मालूम है उसे क्या करना है और जिसे नहीं पता होता उस पुर्जे को बदल दिया जाता है। लेकिन ये सिस्टम कभी नहीं बदलता।
इसमें फालतू के हवा-बाजी वाले डायलॉग नहीं है। जरूरी के डायलॉग है बस। कोई क्रिएटिव गाली नहीं है। उतना ही गाली है जितना रियल लाइफ में लोग देतें हैं।
ये अपने आप में कम्पलीट सीरीज है। सेकंड सीजन के कोई चक्कर नहीं है।
इसमें ये भी दिखाया है कि कोई क्रिमिनल बचपन से क्रिमिनल नहीं होता। इसमें दिखाई साधारण बालक की क्रिमिनल बनने की कहानी हमें खूंखार अपराधी से भी हमदर्दी करवा देती है।
सभी कैरेक्टर की अपनी कहानी है और सबको बखूबी दिखाया है। चाहे वो न्यूज़ रिपोर्टर की बीवी हो या जूनियर, इंस्पेक्टर का लड़का हो या उसका जूनियर या उसका सीनियर। जिन वजह से बच्चे इतने खतरनाक अपराधी बनते है, वही सब इंस्पेक्टर के लड़के के साथ हो रहा होता है, क्या वो समझ पाएगा? समझने के बाद रोक पाएगा? चाय वाले का किरदार करने वाले कालिया की भी अपनी एक कहानी है।
अब हर सीरीज को इंडियन माइथोलॉजी के साथ जोड़ने का ट्रेंड चल पड़ा है। इसमें भी एक कैरेक्टर को उसके साथ जोड़ा जाता है।
मिर्ज़ापुर, द फैमिली मैन और फिर पाताल लोक ये तीनों ही सीरीज अमेज़न प्राइम वीडियो की तरफ से उपहार है हम सिनेमा-प्रेमी लोगों के लिए।