एक पिच्चर देखी थी. कॉलेज के दिनों में. बहुत ही अनमने ढंग से देखनी शुरू की और ज्यों-ज्यों फ़िल्म आगे बढ़ती थी. एक बुखार सा चढ़ता जा रहा था. पिच्चर ख़तम होते होते तप रहा था. फिल्मों में ऐसा कुछ भी पहले नहीं देखा था. ऐसे किरदार जो यूं लगते थे कि घर से निकलो तो नुक्कड़ पे बैठे मिलेंगे. ऐसे किरदार जिनके साथ रोज़ का उठना बैठना था.
अब तक मल्होत्राओं और सक्सेनाओं और बजाजों की लत लग चुकी थी लेकिन उसमें अपनापन शून्य था. फ़िल्मों में मल्होत्रा साहब हेलीकॉप्टर से आते थे, हमने ऐसा कभी नहीं देखा था. लेकिन हां चार लड़के जब एक को मार रहे थे तो मार खाने वाले को कहते ज़रूर सुना था ‘लौंडिया के जैसा काहे मार रहा है बे?’ ये सारा ‘पारिवारिक मजा’ हासिल हुआ ‘हासिल’ में. बनाने वाला ठेठ इलाहाबादी जिसने लौंडों को सचमुच कर्नलगंज से यूनिवर्सिटी तक दौड़ाए जाने के पूरे कार्यक्रम को घोट कर पिया और फ़िल्म में उसे जिला दिया.
फ़िल्म कतई अंडर-रेटेड है, और मेरा हाल ये है कि जब तक दिन के बीस-पच्चीस डायलॉग ना मार लूं, चैन नहीं पड़ता.
काफी रियलिस्टिक लगी ये फिल्म और इनके किरदार में इरफ़ान खान जी और आशुतोष राणा जी।
फिल्म का एक डाइलोग -
“सुनो रणविजय सिंह, ये तुम अपनी नेतागिरी कौनो और क्षेत्र में जाके करो. हमारा आसिरबाद है. बहुत आगे जाओगे. लेकिन आज के बाद अगर एन्बर्सिटी में पिछड़ों का झंडा उठाया …”
“तो?”
“हैं?”
“तो का होई बाबू साहब?”
“तो कम कर दिए जाओगे. दो मिनट का मौन होगा तोहरी याद में. तुमरी पार्टी के दो चार लौंडे आगे गाना-माना गा देंगे. कि चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना. और का होगा बे? हैं? नैसनल हॉलिडे होगा का तोहरी याद में?”