पर सोचे आप तो जीवविज्ञान के जानकार विद्यार्थी है , शरीर विज्ञान की पर्याप्त समझ है , पशु सिर्फ जीवन समाप्त करना चाहता और करता अपनी भूख के शमन के लिए , जब उसका पेट भरा रहता, उसे भूख नहीं तो वह ,बिना छेड़ने पर हमलावर या शिकारी नही बनता। जबकि मनुष्य अपनी बुद्धि, विवेक का सफल सकरात्मक प्रयोग कर दूसरों का जीवन बचाने, उन्नतिशील बनाने का कार्य करता, कर सकता, हमारा गोत्र किसी गुरुकुल, ऋषि, महर्षि, ब्रम्हऋषि, के नाम से जाना जाता, और उनका महासंकल्प का वाक्य ही है , सर्वेत्र सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःखमाप्नुयात ।।
मानव ईश्वर, या प्रकृति की सवश्रेष्ठ रचना निर्मिति है , मनुष्य पशुत्व से आगे की क्रांति है , डारविन का सिद्धांत ये कहता कि हम पहले बंदर और उसके भी पहले उक्रान्तिवाद की अवधारणा अनुसार जलचर से विकसित हुए, इस 200 ,300 वर्ष पहले लिखा जबकि हमारा वैदिक विज्ञान शास्त्र हजार सदियों, युगों पूर्व की बात करता आ रहा पृथ्वी के उत्पति के साथ अवतारों के रूप में जलावतार,कूर्म,सूकर, नर्सिहवातार,वामन,परशुराम,राम, बलराम,कृष्ण, और बाद में बुद्ध महावीर के बारे में, नर में से नारायण बनने की शक्ति मनुष्य में , देवत्व धारण करने की क्षमता भी हमारे अंदर है तो क्यों हम पशुआहार को मानव के लिए उचित मानते, हमारे उपासना स्थल हमारे जीवन का वास्तविक, आध्यात्मिक, समाजिक, भावनात्मक समुचित विकास चाहते न कि पतन चाहते इस लिए उपासना स्थल पर मांसाहारी वर्जित होता है । हमको राम के सात्विक रास्ते पर जाना, कंस,या रावण के राक्षसी पृवत्ति पर ये खुद को तय करना , ऋषि रास्ता बताते चलना मनुष्य को है ।