सभ्यता तथा संस्कृति के वाहक , जयशंकर प्रसाद के इस महाकाव्य का हिंदी साहित्य में उच्च स्थान है ! छायावादी चेतना से शोभित इस काव्य को विश्व के किसी भी साहित्य के पैमानों पर तौला जा सकता है! इसके सर्गों में एक विशेष लालित्य है ,चमत्कार है, शाश्वत सत्य का महँ प्रयोग है , नश्वर जीवन के विभिन्न स्तरों तथा नैतिक मूल्यों यथा उत्थान , विकास, काम, वासना , तर्क ,बुद्धि ,लोभ , अहिंसा , घृणा , करुणा , दया , प्रेम , विरह आदि का अद्भुत चित्रण है। प्रसाद ने एक अद्भुत बिंबरचना करके पाठक को सहज ही भाव की अनुभूति करा दी है।
खेद का विषय यह है की विकास की अंधी दौड़ में भारत की आधुनिक संताने शायद इस ग्रंथ को कभी न पढ़ें। उनके पास समय नहीं हैं साहित्य पढ़ने का। क्योंकि साहित्य साधना है। और साधना कठिन है।