अद्वितीय काव्य रचना है उर्वशी, जो श्री दिनकर जी की लेखनी के आलोक से सुंदरता के शिखर तक जा पहुंची।
"इन कपोलों की ललाई देखते हो?
और अधरों की हंसी, यह कुंद सी, जूही कली सी।
गौर-चम्पक-यष्टि सी यह देह श्लथ पुष्पाभरण से,
स्वर्ण की प्रतिमा कला के स्वप्न सांचे में ढली सी?"
प्रकृति का मनोरम दृश्य को शब्दों में उतारना जहां जाकर शायद ही कोई लौटना चाहे।
काम का मनोविज्ञान जिसे भारतीय परिवेश व दर्शन से संजोया हैं कविवर दिनकर ने
"आग है कोई कभी न शांत होती,
और खुलकर खेलने से भी निरंतर भागती है"
दृष्टि का जो पेय है वह रक्त का भोजन नहीं है,
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है।"
लेखनी असहाय है समीक्षा लिखने में
सादर
नरेंद्र शर्मा