औरों में कहाँ दम था
आजकल रिलीस होने वाली उबाऊ, बेसिरपैर की और बनावटी vfx वाली फिल्मों के बीच एक ठंडी हवा का झोंका.. आखिर के 15 मिनिट आपका गला रुंधाने का दम रखते हैं..
थोड़ी स्लो है, हल्की सी... पर फटाफट सबकुछ हो जाने वाली आजकल की सड़ांध फिल्मों से कहीं आगे और खुशबूदार
अजय देवगन ने फिर कमाल किया.. बिल्कुल शांत.. ये ज़रूर कहूंगा कि बहोत वक़्त के बाद एक बार फिर अजय देवगन ने अपनी आंखों से सबकुछ बयां करने वाली एक्टिंग की है.. शाबाशी के हक़दार है वो.. बिल्कुल ही सिंपल सरल और सहज कॉस्ट्यूम और अपीयरेन्स है उनका इस फ़िल्म में..
तब्बू का रोल और dialougs कम हैं पर जानदार है उनका इस फ़िल्म में होना..
कप्तान नीरज पांडे की तो क्या ही बात की जाए, बॉक्स आफिस पर हिट ना हो सकने के पूरे चांसेस के बावजूद बड़ी रिस्क लेकर उन्होंने ये फ़िल्म बनाई है... गोयाकि ख़ुद को खुश करने की ज़िद हो उनकी, खुद को संतोष प्रदान करने के लिए बनाई हो जैसे.. मैं फिर से कहूंगा, अगर थोड़ी बोरियत हो भी शुरुआत में तो आखिर के 15 मिनिट के लिए सब सहन कर लेना.. वैसे भी जिस कांसेप्ट और सोच के साथ ये फ़िल्म बनी है, इसे तसल्ली से देखना ही पड़ेगा,
वीर ज़ारा याद है ना, बस!!
अजय और तब्बू की जवानी का रोल निभाते हुए 2 नवोदित कलाकारों ने भी अच्छा निभाया है, लड़का तो कमाल ही कर गया
मज़ा आ गया